श्वेत केश, श्वेत वेष, श्वेत अश्व, श्वेत शमश्रु, तन पर भारी कवच, एक हाथ में भाला और उस भाले से ही जलती हुई आग में सिकती बाटी। यह तस्वीर देखते ही मन में उमंग उठती है कि, काश हम इस महाभट के काल खंड में पैदा हुए होते। पाली और जैतारण सहित जब मारवाड़ स्थित अरावली से जब भी गुजरता हूं तो बड़ी मंद-मंद स्वर में घोड़े की टापों की आवाज सुनाई देती है, भीनी-भीनी खुशबू आती है सिकते हुए आटे की और सुनाई देती है तलवारों की झंकार के साथ एक गूंज, जय भवानी। इस नास्टेल्जिया से कभी बाहर आ ही नहीं पाता हूं, जब भी उस महान स्वामिभक्त वीरवर दुर्गादास का नाम सुनता हूं, स्मरण करता हूं। इतिहास के बहुत कम नायक हैं जिनसे यूं जुड़ाव हो जाता है मानो वो हमारे ही अपने घर के बडेरे थे, मानो उन्हीं का रक्त हमारे भीतर बह रहा है, दुर्गादास इन इतिहास पुरुषों में से एक है।
दिल्ली पर मुगलिया हुकूमत अपने पूरे शबाब पर थी, औरंगजेब का डंका पूरे हिंदुस्तान में बज रहा था, बस दो ही राज्य थे जो उसकी आँख में किरकिरी बने हुए थे मराठा और मारवाड़। छत्रपति शिवाजी और जसवंतसिंह, औरंगजेब के सामने हिंदुआ गौरव को जिंदा रखे हुए थे, वरना तो उस क्रूर शासक ने सम्पूर्ण भारत में मंदिरों को तोड़ दिया था और राजस्थान के सीकर के हर्ष महादेव मंदिर तक को छिन्न-भिन्न कर दिया था, पर मारवाड़ की तरफ आँख नहीं उठा पा रहा था।
हिन्दुस्तान की गद्दी पर जब औरंगजेब बैठा था उसी समय जोधपुर में महाराजा जसवंतसिंह प्रथम राजा के रूप में विराजमान थे जिनकी जमरूद में मृत्यु हो गई थी और उस वक्त औरंगजेब ने कहा कि, “कुफ्र का दरवाजा टूट गया है।” जसवंतसिंह की मृत्यु के कुछ समय पहले ही उनका पुत्र अजीतसिंह पैदा हुआ था और आलमगीर औरंगजेब ने उस सद्यजात शिशु के धर्म परिवर्तन का प्रयास करना शुरू कर दिया। ऐसे समय में अजीतसिंह को सुरक्षित जोधपुर पहुंचाने का बीड़ा जिस यौद्धा ने उठाया और औरंगजेब की सत्ता को सीधी चुनौती दी वह उद्भट वीर दुर्गादास राठौड़ थे। मारवाड़ राठौड़ वंश के कुलदीपक को बचाने के लिए संघर्ष करने वाले इस महानायक का जन्म जोधपुर के दीवान आसकरण की पत्नी नेतकंवर के गर्भ से तेरह अगस्त सौलह सौ अड़तीस में हुआ था। बचपन से ही निडर और बेखौफ व्यक्तित्व का धनि यह बालक महान संस्कारों के साथ जन्मा था जिसमें वीरता, धैर्य और स्वामिभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। राजकीय हरकारों की अभद्रता के चलते राजकीय ऊंट की गर्दन अपनी तलवार के एक वार से काट लेने वाले इस बालक से प्रभावित महाराजा जसवंतसिंह स्वयं उन्हें ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ कहा था।
महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु होने के बाद वीरवर दुर्गादास ने नन्हे बालक कंवर अजीतसिंह को महाराजा घोषित करने के लिए बादशाह औरंगजेब के सामने अर्जी लगाई तो उसने अजीतसिंह के इस्लाम ग्रहण करने की शर्त रख दी, हिन्दुआ गौरव को अपने प्राणों से भी प्यारा समझने वाले दुर्गादास ने इसका पुरजोर विरोध किया और इस शर्त को अस्वीकार कर दिया। एक सामान्य सेनानायक दुर्गादास द्वारा अपनी मुखालफत देख आलमगीर औरंगजेब ने जोधपुर रियासत पर अपना थाना बिठा दिया और बालक अजीतसिंह की हत्या करने का प्रयास किया। इस विकट समय में दुर्गादास ने अजीतसिंह की धाय गौरां के सहयोग से नन्हे अजीतसिंह को सिरोही पहुंचा दिया। यहीं शुरू होती है दुर्गादास के जीवन की अमिट संघर्ष की दास्तान। मुगलिया ताकत से सीधे टकराने में समाप्त होने का खतरा जिसको दुर्गादास भलीभाँती जानते थे इसलिए उन्होंने मुगलों के विरुद्ध उन्होंने छापामार गुरिल्ला युद्ध प्रणाली से काम करना शुरू कर दिया और संकल्प लिया कि, जब तक अजीतसिंह को जोधपुर की गद्दी पर नहीं बिठा देता तब तक चैन से नहीं बैठूंगा। अपने इस दृढ संकल्प को पूरा करने के लिए उस महानतम योद्धा ने अपने जीवन के महत्वपूर्ण तीस वर्ष घोड़े की पीठ पर ही काट दिए, तभी तो राजस्थानी कवि कहते हैं, –
माई ऐहड़ौ पूत जण, जेहड़ौ दुर्गादास
मार मण्डासो थामियो, बिन थाम्बा आकास।।
वीरवर दुर्गादास ने उस वक्त राजपूताने के हर रजवाड़े से सहायता मांगी थी लेकिन मुगलों से भयभीत तात्कालिक किसी भी राजा ने, किसी भी ठिकाने ने उनकी मदद करना तो दूर बल्कि उनको जिन्दा पकड़वाने की साजिशें तक रची थी लेकिन जो पकड़ा जा सके वो दुर्गादास नहीं हो सकता। उन्होंने अजीतसिंह को जोधपुर दिलवाने का अटल संकल्प लिया था और इसको पूर्ण करने के लिए उन्होंने न दिन देखा, न रात। इसीलिए तो कवि कहते हैं, –
आठ पहर, चौसठ घड़ी, घुड़ले ऊपर वास।
अणी सेल सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास।।
अजीतसिंह को जोधपुर का महाराजा बना कर ही विश्राम लेने की सोची थी उस महानतम योद्धा ने और सत्रह सौ सात में अजीतसिंह का भव्य तरीके से राज्याभिषेक हुआ। वीरवर दुर्गादास ने अपना संकल्प पूर्ण कर दिया था, अपने स्वामी महाराजा जसवंतसिंह के इस विश्वास पर कि, “आसकरण का ये पुत्र एक दिन मारवाड़ की रक्षा करेगा।” खरा उतर कर दिखा दिया था। दुर्गादास ने दिखा दिया था कि, सामने कैसी भी प्रचंड शक्ति क्यों न हो यदि संघर्ष जारी रखा जाए तो एक दिन सफलता अवश्य मिलती है। अजीतसिंह ने इस सेवा और राजभक्ति के लिए दुर्गादास को जागीर देने की मंशा जाहिर की थी, परन्तु जैसे कि, राजप्रमुखों में कानों के कच्चे होने की एक सामान्य कमी पायी जाती है, उसी कमी के शिकार थे महाराजा अजीतसिंह भी।
सत्ता के बड़े फैसले अजीतसिंह के बचपन से ही दुर्गादास लिया करते थे लेकिन युवा होते अजीतसिंह को यह रास नहीं आ रहा था कि, उनके दरबार में उपस्थित रहते हुए भी कोई दुर्गादास से राजनितिक आदेश प्राप्त करे। चिडचिडे होते अजीतसिंह के कान भी भरे गए, दुर्गादास के विरुद्ध उनको भड़काया गया और कुछ ही समय के बाद अजीतसिंह लोगों के बहकावे में आकर दुर्गादास के साथ नाराज हो गए, न केवल नाराज ही हुए बल्कि उस दुर्गादास को जोधपुर त्याग देने का आदेश दे दिया जिसने अजीतसिंह के लिए अपने प्राण तक दांव पर लगा दिए थे। अपने
प्राणों से अधिक जिस राजकुंवर को माना, जिसको राजा बनाने के लिए दर-दर की ठोकरें खायी और हिन्दुस्तान की बादशाहत तक से दुश्मनी मोल ली थी, उसी राजकुंवर ने राजा बनते ही अपने विश्वसनीय यौद्धा ही नहीं बल्कि अपने प्राण-रक्षक के साथ ये बर्ताव करना, प्रण के पक्के, बात के धनी, स्वाभिमान से जीने वाले, अपनी तलवार के दम पर मुगलिया ताकत को तौलने वाले, अपने भाले की नोक पर अपने प्राणों को रखने वाले उस महाभट, वीर दुर्गादास को रास न आया। उन्होंने अपनी उस मातृभूमि जिसके लिए वो कभी घोड़े की पीठ छोड़ आरामदायक बिछौने पर नहीं सोये थे को भारी मन, दर्द भरी उदासी और भरी हुई आँखों से त्याग दिया। अपना अंतिम समय बिताने वो महाकाल की नगरी उज्जैन चले गए जहाँ पर बाईस नवम्बर सत्रह सौ अठारह को उस महान हुतात्मा ने अपना नश्वर शरीर छोड़ दिया। क्षिप्रा नदी के किनारे सृष्टि के कर्ता-धर्ता महाकाल की छत्रछाया में उस महान योद्धा का दाह संस्कार हुआ और उनकी छतरी आज भी भारतीय इतिहास में हिन्दुआ गौरव को जिन्दा रखने, स्वामिभक्ति की पराकाष्ठा को छूने, राष्ट्र के लिए संघर्ष करने वाले दुर्गादास की स्मृति को अमरता प्रदान करती उसी क्षिप्रा नदी के तट पर खड़ी है।
राजस्थान के कवियों ने वीर दुर्गादास पर बहुत काव्य सृजन किया है। मैंने भी अपनी लेखनी में लिखने का प्रयास किया कि, –
बाटियां सिकती रही, जिसकी भाले की नोक पर।
सौ बार धरा गुमान करती, वीर माँ की कोख पर।
वीर माँ की कोख पर, जिसने जणा बलवान को।
मौत को रखता हथेली, आगे आन-बान-शान को।
घोड़ों की पीठों पे जिसने, काटी साजिशों की बातीयां।
कह गाडण कविराय, सिकती रही जंगलों में बाटियां।।
भारतीय इतिहास का मूल्यांकन किया जाए तो महाराणा प्रताप, गुरु गोविन्दसिंह, छत्रपति शिवाजी, महाराजा छत्रसाल का जो योगदान हिंदुत्व और उसके गौरव को उन्नत रखने का है, बचाने का है, वही योगदान राजस्थान के इस वीर बेटे दुर्गादास का भी है। राजस्थानी के लोकगीतों में ठीक ही कहा गया है कि,-
जे न होतो दुर्गो तो सुन्नत होती आखे राजस्थान की।
दुर्गादास एक ऐसा चरित्र हैं इतिहास का जिनकी वीरता, त्याग और बलिदान का कोई दूसरा जोड़ नहीं मिलता, फिर भी उनके त्याग को जो सम्मान मिलना चाहिए था वह सम्मान नहीं मिला। कुछ लोग उन्हें जातीय आधार पर याद कर लेते हैं, कुछ शहरों के चौराहों पर उनकी मूर्तियाँ लगा दी गई है, क्या उन जैसे महान व्यक्तित्व के धनि, स्वतन्त्रता के पूजारी के सम्मान में यह पर्याप्त है? राष्ट्र के इस अद्वितीय महानायक जिसको उसी के राज्य ने भुला दिया, जिसको उसी राजा ने देश निकाला दे दिया जिसके लिए उसने जंगलों की ख़ाक छानी और चिताओं की जलती अग्नि पर भी अपनी बाटीयां सेंकी थी, उस अद्वितीय और स्वाभिमानी व्यक्तित्व के चरणों में कोटि-कोटि नमन के साथ उस महानायक को प्रणाम।
– मनोज चारण ‘कुमार’
रतनगढ़ (चूरू) राज.