ये है बिग्गाजी धाम "अक्षरधाम" जैसा वीर बिग्गाजी महाराज धड़ देवलीधाम " बिग्गा "

Bigga Ji Dham Dhar Devali राजस्थान के वर्तमान बिकानेर जिले में स्थित गाँव बिग्गा है  और लंबे समय तक जाखड़ों का इन पर अधिकार बना रहा.बिग्गाजी का जन्म विक्रम संवत 1358 (1301) में रिड़ी में हुआ था . इनका गोत्र पुरुवंशी है. इस गोत्र के बड़े बड़े जत्थे दिग्विजय के लिए विदेश में गए बताये जाते हैं. ये वापिस अपनी जन्म स्थली भारतवर्ष लौट आए. इनके पिताजी का नाम राव मेहन्दजी तथा दादा जी का नाम राव लाखोजी चुहड़ था. गाँव कपूरीसर के ग्राम प्रधान चूहड़ जी गोदारा की पुत्री सुलतानी इनकी माता जी थी

बिग्गाजी जब थोड़े बड़े हुए तो इनको धनुष विद्या तथा अस्त्रशस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया गया. जब वे युवा हुए तो उन्हें विशेष युद्ध लड़ने की शिक्षा दी गई. उस युग में गायों को पवित्र और पूजनीय माना जाता था. उस समय में गायों को चराना और उनकी रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म और प्रतिष्टा मानी जाती थी ये है बिग्गा जी की जीवनी 

हिन्दू धर्म के संरक्षक और महान गौरक्षक " वीर बिग्गा जी "

बिग्गाजी ने बैसाख सुदी तीज को 1336 ई. में गायों की डाकुओं से रक्षा करने में अपने प्राण दांव पर लगा दिये थे. विक्रम संवत 1393 में बिग्गाजी के साले का विवाह था. ऐसी लोक कथा प्रचलित है कि बिग्गाजी 1336 ई. में अपनी ससुराल में साले की शादी में गए तब साथ में बागड़वा ढाढी, जाखड़ नाई, तावणिया ब्राह्मण, कालवा मेघवाल को भी साथ ले गये. रात्रि विश्राम के बाद सुबह खाने के समय मिश्रा ब्राहमणों की कुछ औरतें आई और बिग्गाजी से सहायता की गुहार की. मिश्रा ब्राहमणियों ने अपना दुखड़ा सुनाया कि यहाँ के राठ मुसलमानों ने हमारी सारी गायों को छीन लिया है. वे उनको लेकर जंगल की और गए हैं. कृपा करके हमारी गायों को छुड़ाओ. उन्होने कहा कि कोई भी क्षत्रिय रक्षार्थ आगे नहीं आ रहा है. इस बात पर बिग्गाजी का खून खोल उथा. बिग्गाजी ने कहा “धर्म रक्षक क्षत्रियों को नारी के आंसू देखने की आदत नहीं है. अपने अस्त्र-सस्त्र उठाये और साथी सावलदास पहलवान, हेमा बागडवा ढाढी, गुमानाराम तावणिया, राधो व बाधो दो बेगारी व अन्य साथियों सहित गायों के रक्षार्थ सफ़ेद घोडी पर सवार होकर मालासर से रवाना हुये.  मालास वर्तमान में बिकानेर जिले की बिकानेर तह्सील में स्थित है.

बिग्गाजी अपने लश्कर के साथ गायों को छुडाने के लिए चल पड़े. मालासर से 35 कोस दूर जेतारण (जो अब उजाड़ है) में बिग्गाजी का राठों से मुकाबला हुआ. लुटेरे संख्या में कहीं अधिक थे. दोनों में घोर युद्ध हुआ. यह युद्ध राठों की जोहडी नामक स्थान पर हुआ. काफी संख्या में राठों के सर काट दिए गए. वहां पर इतना रक्त बहा कि धरती खून से लाल हो गई. युद्ध में राठों को पराजित कर सारी गायें वपस लेली, लेकिन एक बछडे के पीछे रह जने के कारण ज्योंही बिग्गाजी वापस मुड़े एक राठ ने धोके से आकर पीछे से बिग्गाजी का सर धड़ से अलग कर दिया.  राठों के साथ युद्ध की घटना वि.सं. 1393 (1336 ई.) बैसाख सुदी तीज को हुई थी. 

ऐसी लोक कथा प्रचलित है कि सर के धड़ से अलग होने के बाद भी धड़ अपना काम करती रही. दोनों बाजुओं से उसी प्रकार हथियार चलते रहे जैसे जीवित के चलते हैं. सब राठों को मार कर बिग्गाजी की शीश विहीन देह ने असीम वेग से व ताकत के साथ शस्त्र साफ़ किए. सर विहीन देह के आदेश से गायें और घोड़ी वापिस अपने मूल स्थान की और चल पड़े. शहीद बिग्गा जी ने गायों को अपने ससुराल पहुँचा दिया तथा फ़िर घोडी बिग्गाजी का शीश लेकर जाखड राज्य की और चल पड़ी

घोडी जब अपने मुंह में बिग्गा जी का शीश दबाए जाखड राज्य की राजधानी रीडी़ पहुँची तो उस घोडी को बिग्गा जी की माता सुल्तानी ने देख लिया तथा घोड़ी को अभिशाप दिया कि जो घोड़ी अपने मालिक सवार का शीश कटवा देती है तो उसका मुंह नहीं देखना चाहिए. कुदरत का खेल कि घोडी ने जब यह बात सुनी तो वह वापिस दौड़ने लगी. पहरेदारों ने दरवाजा बंद कर दिया था सो घोड़ी ने छलांग लगाई तथा किले की दीवार को फांद लिया. किले के बाहर बनी खई में उस घोड़ी के मुंह से शहीद बिग्गाजी का शीश छुट गया. जहाँ आज शीश देवली (मन्दिर) बना हुआ है. 

बिग्गाजी के जुझार होने क समाचार उनकी बहिन हरिया ने सुना तो एक बछड़े सहित सती हो गयी. उस स्थान पर एक चबूतरा आज भी मौजूद है, जो गांव रिड़ी में है. यह स्थान रीड़ी गाँव के पश्चिम की और है, जहाँ बिग्गाजी के पुत्रों ओलजी-पालजी ने एक चबूतरा बनवाया जो आज भी भग्नावस्था में ‘थड़ी’ के रूप में मौजूद है और जिसको गाँव के बुजुर्ग लोग ‘हरिया पर हर देवरा’ के रूप में पुकारते हैं. 

जब घोड़ी शहीद बिग्गाजी का शीश विहीन धड़ ला रही थी तो उस समय जाखड़ की राजधानी रीडी से पांच कोस दूरी पर थी. यह स्थान रीडी से उत्तर दिशा में गोमटिया की रोही में है. सारी गायें बिदक गई. ग्वालों ने गायों को रोकने का प्रयास किया तो उनमें से एक गाय घोड़ी से टकरा गई तथा खून का छींटा उछला. उसी स्थान पर एक गाँव बसाया गया जिसका नाम गोमटिया से बदल कर बिग्गाजी के नाम पर बिग्गा रखा गया. जहाँ आज धड़ देवली (मन्दिर) बना हुआ है. यह गाँव आज भी आबाद है तथा इसमें अधिक संख्या जाखड़ गोत्र के जाटों की है. यह गाँव राष्ट्रीय राजमार्ग पर रतनगढ़ व डूंगर गढ़ के बीच आबाद है. यहाँ पर बीकानेर दिल्ली की रेलवे लाइन का स्टेशन भी है. 

गायों की रक्षा करते हुए बिग्गाजी वीरगति को प्राप्त होने के कारण लोगों की आस्था के पात्र बन गए. लोगों ने गाँव रीड़ी में जहाँ बिग्गाजी का जन्म स्थान था तथा जहाँ बिग्गाजी का शीश गिरा था, वहां वि.सं. 1407 (1350 ई.) असोज सुदी 13 को एक कच्चा चबूतरा बना दिया था और बिग्गाजी की पूजा अर्चना आरंभ कर दी. इसी तरह गाँव बिग्गा में भी, जहाँ बिग्गाजी की धड़ गिरी थी और जमीन से देवली निकली थी, वहां ‘धड देवली’ स्थापित कर धोक पूजा शुरू की गयी. बाद में वहां वि.सं. 2025 में आधुनिक मंदिर बना दिया और साथ में यात्रियों की सुविधा के लिए धर्मशाला भी बनवा दी गयी. इसी तरह रीड़ी में भी बिग्गाजी का वर्तमान मंदिर वि.सं. 2034 असोज सुदी 13 को बना दिया. इसके पास ही सं 2006 में ‘पीथल माता का मंदिर’ भी बना दिया है. इस तरह बिग्गा और रीड़ी, जिनके बीच की दूरी 15 की.मी. है, दोनों जगह बिग्गाजी के मंदिर बने हैं. यहाँ घोड़े पर स्वर बिग्गाजी की मूर्तियाँ लगी हैं

ऐसी लोक कथा है कि जहाँ पर बिग्गा जी की धड़ गिरी थी वहां पर एक सोने की मूर्ती अवतरित हुई. जब डाकू उसे निकालने लगे तो वह सोने की मूर्ती जमीन के अन्दर धसने लगी. डाकू निकालने का प्रयास करते रहे, इसी प्रयास के दौरान एक समय ऐसा आया कि ऊपर की मिटटी गिरी जिसके निचे वे डाकू दब कर मर गए. उस जगह के पास एक खेजडी के सामने बने कच्चे चबूतरे पर सफ़ेद पत्थर शिला पर बिग्गाजी की मूर्ती अंकित है तथा सामने पानी की कच्ची नाडी है. इसके पास एक पत्थर की मूर्ती विद्यमान है. इस मूर्ती में बिग्गाजी को घोड़ी पर सवार दिखाया गया है. इस स्थान पर एक बड़ा भारी मेला लगता है. आशोज शुक्ला त्रयोदशी को बिग्गाजी ने देवता होने का सबूत दिया था. वहां पर उनका चबूतरा बना हुआ है. उसी दिन से वहां पर पूजापाठ होने लगी. बिग्गाजी 1336 में वीरगति को प्राप्त हुए थे. 

गोगाजी व तेजाजी की भांति बिग्गाजी भी गौरक्षक लोकदेवता के रूप में पूजे जाने लगे. यह वीर पुरुष जाखड़ जाटों में होने के कारण प्रारंभ में जाखड़ जाट चाहे वे देश-विदेश में कहीं भी रहते हों, बिग्गाजी को अपना कुलदेवता मानकर इसकी पूजा करने लगे. धीरे-धीरे बिग्गाजी के बलिदान व वीरोचित गुणों की गाथा का असर अन्य जातियों पर भी पड़ा और उनमें इन्हें लोकदेवता के रूप में पूजा जाने लगा. आज तो हर जाती के लोग बिग्गाजी के देवरे पर आते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने पर इनकी पूजा अर्चना करते हैं. 

बिग्गा और उसके आसपास के एरिया में बिग्गा गोरक्षक लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं. शूरवीर बिग्गाजी जाखड़ जांगल प्रदेश में, जो वर्तमान बीकानेर, चुरू, गंगानगर और हनुमानगढ़ में फैला हुआ है, थली क्षेत्र के लोकदेवता माने जाते हैं. इनका परमधाम डूंगरगढ़ से 12 किमी दूर पूर्व में बिग्गा ग्राम की रोही में है. 

बिग्गाजी के चमत्कार की कई लोक कथाएँ प्रचलित हैं. एक बार वहां के एक आदमी हेमराज कुँआ खोदते समय 300 फ़ुट गहरी मिटटी में दब गए. लोगों ने उसे मृत समझ कर छोड़ दिया. कई दिनों के बाद वहां पर लोगों को नगाडा बजता सुनाई दिया. जब लोगों ने थोड़ी सी मिटटी खोदी तो हेमराज जीवित मिला. उसने बताया कि बिग्गाजी उसे अन्न-पानी देते थे. वह नगाड़ा उसने बिग्गाजी के मन्दिर में चढ़ा दिया. मन्दिर में पूजा करते समय कई बार घोड़ी की थापें सुनाई देती हैं. लोगों में मान्यता है कि गायों में किसी प्रकार की बीमारी होने पर बिग्गाजी के नाम की मोली गाय के गले में बांधने से सभी रोग ठीक हो जाते हैं. बिग्गाजी के उपासक त्रयोदसी को घी बिलोवना नहीं करते हैं तथा उस दिन जागरण करते हैं और बिग्गाजी के गीत गाते हैं. इसकी याद में आसोज सुदी 13 को ग्राम बिग्गा व रिड़ी में स्थापित बिग्गाजी के मंदिरों में विशाल मेले भरते हैं जहाँ हरियाणा, गंगानगर तथा अन्य विभिन्न स्थानों से आए भक्तों द्वारा सृद्धा के साथ बिग्गाजी की पूजा की जाती है. 

श्री डूंगर गढ़ क्षेत्र के अनेक गाँवों में भी बिग्गाजी के थान (पूजा स्थल) बने हुए हैं जिस पर सफ़ेद कपडे की धज्ज लगी होती है. यहाँ मूर्तियाँ अक्षर घोड़े पर स्वर के रूप में मिलती हैं, जहाँ लोग इनकी पूजा करते हैं. बिग्गाजी के उपासक जाट हर माह की तेरस को घी का बिलोवणा नहींकरते हैं, दूध को न जमा कर उसकी खीर बनाते हैं और बिग्गाजी को भोग लगाते हैं. बिग्गाजी के ग्राम बिग्गा व रीड़ी में इनके अनुयायी विवाह के बाद गठ्जोड़े की जात देने आते हैं, बिग्गाजी की जोत करते हैं और मूर्ती के चारों और फेरी देते हैं. पुत्र रत्न की प्राप्ति और बच्चों का जडूला उतरने भी आते हैं. 

बिग्गाजी के भक्त ग्राम बिग्गा में स्थित बिग्गाजी के मंदिर में स्थित पीपल के वृक्ष पर कपड़े में नारियल व आखे (अनाज के दाने) बाँध कर अमुक-अमुक इच्छा पूरी होने की कामना करते हैं और उसके पूरी होने पर वहां जाकर रात्रि जागरण व सवामणी करते हैं तथा मूर्ती पर चांदी के छत्र व कपड़े इत्यादि चढाते हैं. इसके अलावा वहां पक्षियों के लिए चुग्गा डालते हैं. रीड़ी व बिग्गा के मंदिरों में नगारा बजाकर लोकदेवता बिग्गाजी का आह्वान किया जाता है तथा मूर्ती की आरती उतारी जाती है. पिछले कुछ वर्षों से इन दोनों स्थानों पर तावणिया ब्रह्मण (जाखड़ जाटों के कुल गुरु) पुजारी है. रीड़ी में भूराराम तावणिया तथा बिग्गा में मालाराम तावणिया ब्रह्मण पूजा करते हैं. इन मंदिरों का चढ़ावा भी ये पुजारी लेते हैं.इन दोनों मंदिरों की बड़ी मान्यता है

जय बिगमल देवा-देवा-जाखड़कुल के सूरज करूं मैं नित सेवा ।

जाखड़ वंश उजागर, संतन हित कारी (प्रभु संतन)

दुष्ट विदारण दु:ख जन तारण, विप्रन सुखकारी ॥ 1 ॥

सत धर्म उजागर सब गुण सागर, मंदन पिता दानी ।

सती धर्म निभावण सब गुण पावन, माता सुल्तानी ॥ 2 ॥

सुन्दर पग शीश पग सोहे, भाल तिलक रूड़ो देवा-देवा ।

भाल विशाल तेज अति भारी, मुख पाना बिड़ो ॥ 3 ॥

कानन कुन्डल झिल मिल ज्योति, नेण नेह भर्यो ।

गोधन कारन दुष्ट विदारन, जद रण कोप करयो ॥ 4 ॥

अंग अंगरखी उज्जवल धोती, मोतीन माल गले ।

कटि तलवार हाथ ले सेलो, अरि दल दलन चले ॥ 5 ॥

रतन जडित काठी, सजी घोड़ी, आभाबीज जिसी ।

हो असवार जगत के कारनै, निस दिन कमर कसी ॥ 6 ॥

जब-जब भीड़ पड़ी दुनिया में , तब-तब सहाय करी ।

अनन्त बार साचो दे परचो, बहु विध पीड़ हरी ॥ 7 ॥

सम्वत दोय सहस के माही, तीस चार गिणियो ।

मास आसोज तेरस उजली, मन्दिर रीड़ी बणियो ॥ 8 ॥

दूजी धाम बिग्गा में सोहे, धड़ देवल साची ।

मास आसोज सुदी तेरस को, मेला रंग राची ॥ 9 ॥

या आरती बिगमल देवा की, जो जन नित गावे ।

सुख सम्पति मोहन सब पावे, संकट हट जावै ॥ 10 ॥

 

जन्म परिचय: राव मेहन्द जी के घर उनकी सहधर्मिणी सुल्तानी, जो कपूरीसर के ग्राम प्रधान चुहड़ जी गोदारा की पुत्री थी, की कोख से विक्रम संवत 1211 चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को ब्रह्ममूर्त में वीर बिग्गाजी का जन्म हुआ. उन्हें बचपन में विजयपाल नाम से पुकारा जाता था. उनकी एक बहन हरिया बाई थी.

शिक्षा दिक्षा : वीर बिग्गाजी एक खानदानी बालक होने के कारण व पूर्व जन्म के योगिक संस्कारों से स्वत: ही सद शिक्षाओं को धारण किए हुये थे. युद्ध कौशल उन्हें उनके चाचा-ताऊओं द्वारा सिखाया वंश परंपरा अनुसार मिला था. अक्षर विद्या में उन्हें संस्कारवान तावणिया देवी मानते थे. जैसा कि प्रत्येक किसान व शूरवीर के स्वभाव में होता है वह धरती मां को पूजते थे. उस समय की प्रचलित मारवाड़ी भाषा में धरती माँ को पीथल के नाम से पूजते थे. गौ माता में विशेष श्रद्धा रखते थे.

दिनचर्या: श्री बिग्गाजी प्राय: छोटे बच्चों में न बैठकर बड़े बुजुर्गों में बैठते थे. वह समाज की समस्याओं पर चर्चा करते थे और सुनते थे. उस समय गाय और नारी जाति पर बहुत अत्याचार हो रहे थे. इन अत्याचारों की घटनाओं को सुनकर उनका खून खौल उठता था. इसके लिए कुछ कर गुजरने का भाव उनके मन में उठता रहता था. वे प्राय: ईश्वर से प्रार्थना करते कि मुझे ऐसी शक्ति दें जिससे मैं जुल्मों का सामना कर सकूं. शिक्षा के बाद वे गायों में अपना समय अधिक गुजारते. वह ध्यान अवस्था में देवी शक्तियों में मगन रहते थे. वह अश्वारोहण में बहुत माहिर थे. अपने लिए एक सफेद घोड़ी रखते थे जो हर परिस्थिति में उनका साथ देती थी.

वीरगति: पूर्व लिखित साक्ष्यों के अनुसार बिग्गा जी के ससुराल में उनके साला श्री का विवाह उत्सव था. बिग्गा जी भी उस प्रसंग में अपने सहयोगियों सावलदान पहलवान, हेमा बागढड़वा ढोली, पंडित गुमाना राम तावणिया, राधो टाकवा नाई व बाद्धो कालवा बेगारी के साथ शामिल हुये थे. बिग्गाजी भोजन करने बैठ ही थे कि उसी समय किसी अबला को सहायतार्थ वीर क्षत्रियों को पुकार लगाते हुए सुना. उसी समय वीर बिग्गाजी में शौर्य जाग उठा और कवि की उन पंक्तियों को साकार किया- भीड़ पड़या रणधीर छुपे ना वीर. बिग्गाजी के पूछने पर जाना कि किसी अबला की गायों को कोई लुटेरे ले गए. तो बिग्गाजी अपने सहयोगियों के साथ एक पल भी गमाए बिना उनका पीछा किया, उन पर जा चढ़े और उनका कम खून खराबे में गायों को छुड़ा लाये. आने पर अबला ने कहा मेरा एक बछड़ा पीछे रह गया. वीर बिग्गाजी फिर जा पहुंचे. तब तक लुटेरे संगठित हो गए थे. बिग्गा जी ने अपने आराध्य मां धरती (पीथल) को प्रणाम किया व शक्ति मांगी और दुश्मन पर टूट पड़े और लुटेरों का विनाश करने लगे. उसी समय किसी ने कुटिल नीति से बिग्गाजी पर पीछे से वार कर दिया. बिग्गा जी का शीश धड़ से अलग होते ही वीरगति को प्राप्त हो गए. घोड़ी ने शीश को जमीन पर नहीं गिरने देकर अपने मुख में पकड़ लिया. कहते हैं वीर बिग्गाजी में मां पीथल ने इतनी शक्ति भर दी जिसे अकेले धड़ ने ही युद्ध कर दुश्मनों का सर्वनाश कर दिया और बछड़े को छुडवाया.

11 करोड़ की लागत के बिग्गाजी मंदिर का शिलान्यास

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